'कर्मभूमि' पुस्तक समीक्षा
उपन्यास- कर्मभूमि
लेखक - प्रेमचंद
संस्करण - सन् 2017
प्रकाशक - प्रकाशन संस्थान
मूल्य - 125 ₹
प्रेमचंद द्वारा रचित 'कर्मभूमि' उपन्यास की समीक्षा के माध्यम से हम कर्मभूमि उपन्यास के सारांश, उद्देश्य, किसानी समस्या, धार्मिक पाखंड, पात्र योजना, प्रमुख पात्रों के चरित्र चित्रण, उपन्यास की भाषा शैली आदि पक्षों पर विचार करेंगे।
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'कर्मभूमि' उपन्यास
'कर्मभूमि' उपन्यास प्रेमचंद द्वारा रचित एक यथार्थवादी उपन्यास है। इसका प्रकाशन 1932 ई. में हुआ। प्रेमचंद ने इस उपन्यास की रचना सिविल नाफरमनी आंदोलन के दौरान की थी। यह स्वाधीनता आंदोलन की पृष्ठभूमि पर रचा गया उपन्यास है जो पाठक के समक्ष उस तबके के लोगों की समस्या को उठाता है जिन्हें हम नज़रंदाज़ करते है। यह उपन्यास मध्य वर्ग और निम्न वर्ग की समस्याओं को राष्ट्रीय समस्या के रूप में चित्रित करता है। और यही इस उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता है। हम जिसे निजी समस्या समझते है प्रेमचंद उसे एक व्यापक समस्या के रूप में उपस्थित करते है।
कर्मभूमि का अर्थ
कर्मभूमि अर्थात् व्यक्ति का कर्म क्षेत्र । कर्मभूमि उपन्यास में लेखक ने शीर्षक के माध्यम से पाठकों को कर्मयोग का संदेश दिया है। उपन्यास में धनी से धनी व्यक्ति अपना सुख त्याग कर औरों के हित के लिए कर्म क्षेत्र में उतर आते है। इस जीवन में व्यक्ति जब अपनी सुख सुविधाओं की चिंता से अधिक दूसरों के सुख दुःख की चिंता करने लगता है, तभी उसका जीवन संसार रूपी कर्मभूमि में फलीभूत होता है। जीवन की सार्थकता औरों के सुख में निहित है। स्वयं का सुख मनुष्य को स्वार्थी व संवेदनाशून्य बनाता है।
कर्मभूमि उपन्यास का यथार्थवाद
यथार्थवाद - कर्मभूमि उपन्यास एक यथार्थवादी उपन्यास है। इसमें चित्रित प्रत्येक पात्र यथार्थवादी मनोवैज्ञानीकी का सर्वोत्तम उदाहरण है। कर्मभूमि उपन्यास की समस्याएं धरती की ठोस वास्तविकताओं से उत्पन्न होती है। प्रेमचंद यथार्थ की विद्रुपता को अत्यंत संयमित ढंग से प्रस्तुत करते है। कर्मभूमि में प्रेमचन्द ने समाज, जीवन और व्यक्ति की समस्याओं का आंकलन अत्यंत यथातथ्यात्मक धरातल से किया है। उनके वर्णन की यथार्थता तो इस उपन्यास में पग- पग पर देखने को मिल जाती है। मुन्नी के साथ बलात्कार वाली घटना , लगानबंदी को कुचलने में मिस्टर घोष व सलीम की पशुता, मंदिरों में हरिजन के प्रवेश को रोकने हेतु गोली चलाना आदि विद्रुपताओं का इतना भयावह चित्रण किया है जिसे देख करुणा को भी करुणा आ जाती है। सलीम, लाला समरकांत, काले खाँ, सुखदा आदि पात्र यथार्थवादी पात्र है। पर उपन्यास में इन सभी चरित्रों को अंत में आदर्श के माध्यम से उबारने की कोशिश की गयी है।
कर्मभूमि उपन्यास का सारांश
कर्मभूमि उपन्यास का प्रारंभ अमरकांत के स्कूल की फ़ीस ना भर पाने की विवशता से प्रारंभ होती है। सलीम उसका मित्र जो उसकी फ़ीस देता है। फ़ीस ना भर पाने की वजह अमरकांत और उसके पिता लाला समरकांत के बीच चल रहा मनमुटाव है। दोनों के विचारों में काफी अंतर है पर उन्हें जोड़ने का काम नैना करती है। नैना अमरकांत की सौतेली बहन है, पर शक्ल-सुरत में अमरकांत की तरह दिखती है। उपन्यास की कथा में नया मोड़ तब आता है जब अमरकांत की शादी सुखदा से होती है। लाला समरकांत की इच्छानुसार सुखदा भी अमरकांत को दुकान पर काम करने के लिए कहती है। अमरकांत अब दुकान पर बैठ कर ही अपनी पढाई करता। वहां काम करते उसका परिचय काले खां से होती है जो चोरी का समान बेचने समरकांत के पास आता था। वहीं उसकी मुलाकात पठानिन जो सकीना की दादी है उससे होती है, जिसे लाला समरकांत जिवोकोपार्जन हेतु पाँच रुपए महीना देते थे। इन दोनों चरित्रों-पठानिन और काले खाँ को देखकर अमरकांत के मन में पिता के लिए एक और सम्मान बढ़ता है वही दूसरी और उन्हें निकृष्ट कोटि का काम करने वाला समझने लगता है। पठानिन के जरिये सकीना से मुलाकात होती है और उनकी नजदीकियां भी बढ़ती है। सुखदा को त्याग कर अमरकांत सकीना से विवाह करना चाहता है। यह सब कुछ अचानक नही होता, सुखदा और अमरकांत दो भिन्न प्रवृत्ति के थे। दोनों के मध्य सम्बन्ध स्थापित तो होते है किंतु प्रेम की पराकाष्ठा तक वे नही पहुँचते है। उन्हें एक बालक भी होता है पर वह भी इन्हें जोड़ पाने में सहायक नही होता और वह सकीना के प्रेम में अपनी जीवन की सार्थकता समझने लगता है। पठानिन के विरोध करने पर वह अमरकांत शहर छोड़ कर चला जाता है। इस बीच नैना जो शांति कुमार के प्रति अनुरक्त थी उसका विवाह एक विलासी पुरुष से हो जाता है। सुखदा भी अमरकांत के जाने के बाद अपनी गलतियों को पहचानती है और अछूत के मंदिर प्रवेश को लेकर हुई आंदोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती है और जेल चली जाती है। उधर अमरकांत भी किसान आंदोलन का समर्थन करते हुए जेल की सजा काटता है। उपन्यास का अंत जेल में ही संम्पन्न होता है। नैना की मृत्यु हो जाती है। सलीम और सकिना एक दूसरे के बंधन में बंध जाते है। अमरकांत और सुखदा भी खुशी खुशी एक दूसरे को अपनाते हैं। उपन्यास में यही मुख्य कथा है। जो प्रासंगिक कथाओं के सहयोग से अपने अंत तक पहुँचती है।
कर्मभूमि उपन्यास का उद्देश्य
- कर्मभूमि उपन्यास में प्रेमचंद ने परिस्थितियों के घात प्रतिघात के बावजूद व्यक्ति को निष्काम कर्मयोग का संदेश दिया है।
- पात्रों के यथार्थ चित्रण द्वारा समाज को जागरूक किया है साथ ही मानवीय मूल्यों की रक्षा हेतु आदर्श द्वारा उन्हें उबारने का महत् प्रयास भी किया है।
- अमरकांत के द्वारा प्रेमचंद यह संदेश देते है की चारित्रिक दुर्बलता के कारण व्यक्ति अपनी सुखी जीवन को त्याग कर व्यर्थ में भटकता रहता है।
- समरकांत व धनिराम के माध्यम से पूँजीपति वर्ग के स्वार्थी व संकीर्ण जीवन का चित्रण किया है।
कर्मभूमि उपन्यास की मूल समस्याएं
जमीन की समस्या
लगान कम करने की समस्या
खेतिहर मजदूरों की समस्या
अछूतों के मंदिर में प्रवेश की समस्या
नारी की असुरक्षा की समस्या
पत्नी के समानाधिकार की समस्या
कर्मभूमि उपन्यास की पात्र योजना व चरित्र चित्रण
कर्मभूमि उपन्यास के प्रमुख पात्र
अमरकांत - नायक
सुखदा - नायिका
समरकांत - अमरकांत के पिता
रेणुका देवी - सुखदा की माँ
नैना - अमरकांत की बहन
मुन्नी - गाँव की लड़की जिसके साथ बलात्कार हुआ था
सलीम - अमरकांत का दोस्त
सकीना - अमरकांत जिसके प्रति अनुरक्त था
काले खां - चोरी का सामान बेचने वाला
प्रो शांतिकुमार - अमर के गुरु
उपन्यास में और भी पात्र है जो प्रसंग वश आए है जिनके माध्यम से कथानक को उसके चरम बिंदु तक पहुँचाया गया है। सेठ धनीराम, चौधरी गुदर , पठानिन, मिस्टर घोष आदि कई पात्र है। प्रेमचंद इन पात्रों के माध्यम से समाज का यथार्थ रूप सामने लाते हैं। और चरित्र परिवर्तन द्वारा समाज में आदर्श की स्थापना करते है। जो समरकांत मानवता का शोषक था वह अंत में समाज सेवक बन जाता है। काले खां जिसका जीवन हत्या व अपराध में बीतता है, वह भी अंत में हीन कर्मों से सन्यास ले लेता है। उपन्यास का पात्र सलीम जो शासन और अधिकार के मध्य में निरीह जनता को दमन की चक्की में पीसता है, वह अंत में उन्हीं का रखवाला बन जाता है। धनीराम भी अंत में मनुष्यता की सेवा करता है। और उसके कारण ही सबकी रिहाई होती है। इस प्रकार हम देखते है की पात्रों की योजना प्रेमचंद ने परिस्थितियों के अनुकूल ही किया है। ग्रामीण व शहरी पात्रों की कहानी को एक चरमबिंदु पर लाकर समाप्त किया है। यह इस उपन्यास की विशेषता के रूप में देखा जा सकता है।
कर्मभूमि उपन्यास की नायिका
कर्मभूमि उपन्यास की नायिका सुखदा प्रारम्भ में युवक प्रवृत्ति की युवती थी। उसका अमरकांत से बार बार तर्क करना, उसे समझाना यह दिखाता है कि वह उपन्यास में एक शिक्षित व तर्कशील चरित्र है जो अमरकांत को परिवार के प्रति उसके दायित्वों का बोध कराती है। इसके पीछे भी उसका ही स्वार्थ निहित है, ससुर के तानों को वह सहना नही चाहती है। ऐशोआराम में पली बढ़ी सुखदा छोटी छोटी चीजों के लिए दिये गए उलाहने को सहन नही कर पाती और इसलिए अमरकांत को खुद अपनी जिम्मेदारी उठाने के लिए कहती है।
उपन्यास के अंत में यही सुखदा जो वैभव और विलास पर जान देती है, वह समाजसेविका बन जाती है। सामंतवादी संस्कारों में पलने के कारण जो सुखदा सिद्धान्तः मंदिरों में हरिजनों के प्रवेश से विरोधिनी थी वही सुखदा धर्म की रक्षा गोलियां से होती देखकर उस धर्म का विरोध करने को अमादा हो जाती है। सुखदा के चरित्र के माध्यम से प्रेमचंद आदर्शोंमुख यथार्थवाद की स्थापना करते है।
कर्मभूमि उपन्यास का नायक
कर्मभूमि उपन्यास का नायक अमरकांत जो मध्यवर्गीय छात्र समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हुए अपनी विशिष्ट पहचान बनाता है। उसके प्रेम संबंधों से भी उसके चरित्र के विकास को देखा जा सकता है। पिता से विचारों में मतभेद होने के कारण मानसिक दूरी बढ़ती जाती है। सुखदा से भी उसकी दूरी दोनों के अहं भाव के टकराव के कारण है। यह दूरी ही उसे धनतंत्र से अरुचि उत्पन्न करती है। पिता से अलग होने के बाद उसकी घर गृहस्थी सुखदा को शिक्षिका के रूप में मिले आय से चलती है। क्युंकि सुखदा को उसका खद्दर बेचना पसंद नहीं, इन सब कारणों से वह सकीना की ओर खींचा चला जाता है। सकीना के प्रति उसके प्रेम का औचित्य सिद्ध नहीं होता है। और घर छोड़कर देहाती जीवन बिताने लगता है। वहाँ ग्रामीणों की सरलता सहजता के कारण उसमें समाजिकता का विकास होता है। वहाँ शिक्षा का प्रसार करता है, गाँव वालों को मदिरा सेवन व मांस भक्षण से विरक्त करता है। विश्वव्यापी मंदी की स्थिति में लोग लगान चुकाने में असमर्थ होते हैं इस आंदोलन में अमरकांत उनका नेतृत्व करता है। और अंततः समाज सेवा में संलग्न होने व विद्रोही भाषण देने के जुर्म में जेल जाकर अपनी चरित्र की सार्थकता सिद्ध करता है। मन्मथनाथ गुप्त उसके प्रारंभिक चरित्र को देखते हुए उसे glorified wagabond की संज्ञा देते है, स्वयं प्रेमचंद उसे दिलजले त्यागी की संज्ञा देते है। पर अंत में प्रेमचन्द अमरकांत के रूप में मानव चरित्र का चित्र अंकित करते है।
मुन्नी और सकीना का चरित्र चित्रण
उपन्यास की नायिका के रूप में सुखदा के चारित्रिक
विशेषताओं को देखा, इस अंश में हम मुन्नी और सकीना के चरित्र का अंकन करेंगे।
मुन्नी
मुन्नी उपन्यास की वह पात्रा है जिसके साथ पाठकों की सम्वेदना जुड़ी हुई है। दो गोरे सिपाहियों द्वारा उसका बलात्कार किया जाता है। अमरकांत और उसके दोस्त उसे बचाने आते है। बाद में मुन्नी उन दोनों सिपाहियों की हत्या कर देती है। और उसके विरुद्ध अभियान चलता है। जज साहब जब उसकी इस हत्या को मानसिक अस्थिरता घोषित कर उसे सज़ा से मुक्त कर देते है ,तो वहाँ उपस्थित लोगों की खुशी का ठिकाना नही रहता। सभी उस पूजनीय नारी का सम्मान करना चाहते थे,पर मुन्नी भीतर से टूट चुकी थी। वह कहती है " आज अगर सरकार मुझे छोड़ भी दे, मेरे भाई बहनों मेरे गले में फूलों की माला भी डाल दें, मुझ पर अशर्फियों की बरखा भी की जाए, तो क्या यहाँ से मैं अपने घर जाऊँगी? मैं विवाहिता हूँ। मेरा एक छोटा बच्चा है। क्या मैं उस बच्चे को अपना कह सकती हूँ। क्या अपने पति को अपना कह सकती हूँ। कभी नहीं।"
इसके बाद मुन्नी काशी छोड़कर लखनऊ चली आती है। ट्रेन में उसकी मुलाकात दंपति जोड़े से होती है जिसका एक साल का बालक था। बालक के मोह में वह उस दम्पति जोड़े के साथ हरिद्वार चली जाती है।
वहाँ उनकी सेवा शुश्रुषा में लग जाती है। पर श्रीमती थोड़ी शक्की स्वभाव की थी, उसने मुन्नी पर लांछन लगा दिया और पति को भी उस वहम का जिम्मेदार ठहरा दिया। इतनी खरी खोटी सुनने के बाद मुन्नी वहाँ से भागना चाहती थी पर अचानक उसका पति और बच्चा वहाँ आ जाते है। मुन्नी उन्हें वापस लौट जाने को कहती है। इसके बाद मुन्नी के जीवन में एक नया मोड़ आता है। इस घटना के बाद मुन्नी गंगा में कूद पड़ती है पर चौधरी गूदर सिंह का बड़ा लड़का सुमेर उसे बचा लेता है। धीरे धीरे उसे मुन्नी से प्रेम होने लगता है, पर मुन्नी के विरोध करने पर वह उससे दूर रहने लगता है। एक दिन मुन्नी की तबियत खराब हो जाती है, और वह वैध को बुलाने गंगा पार जाता है, और गंगा में डूब जाता है। तब से मुन्नी चौधरी की बड़ी बहु के रूप में वहीं रहने लगती है। उपन्यास में मुन्नी की कहानी के आधार पर, उसे हम एक बेबाक स्त्री के रूप में देखते है। जो आवश्यकता पड़ने पर कुछ कर गुजरने का हौसला रखती है। उन दोनों गोरे सिपाहियों की हत्या यह जाहिर करती है कि समाज में मुन्नी ऐसे लोगों के अस्तित्व को मिटा देना चाहती है जो एक स्त्री को भोग्या के अतिरिक्त कुछ ना समझता हो। उसकी निडरता, बेबाकी, आत्मोत्सर्ग की भावना स्त्री सशक्तिकरण का पथ प्रदर्शित करता है।
सकीना
उपन्यास में सकीना का चरित्र पाठकों के समक्ष उभरकर सामने नही आता है। उसके चरित्र को हम अमरकांत, सलीम और सुखदा के संदर्भ में ही पाते हैं। उसका स्वतंत्र अस्तित्व ना होने का कारण हम रूढ़िगत मान्यताओं को मान सकते है कि वह एक निम्न वर्गीय मुस्लिम समुदाय से संबंध रखती है और माता पिता का साया ना होने के कारण उसकी दादी ही एकमात्र उसका आधार है। उसकी इज्जत ही दादी की एकमात्र जमा पूँजी है। उपन्यास में अमरकांत के प्रणय निवेदन करने से वह भी उसपर अपना सर्वश्व न्यौछावर करने को तैयार हो जाती है। वह पहली बार सामाजिक रूढ़ियों का विरोध करते हुए नज़र आती हैं। वह अपनी दादी का भी त्याग कर देना चाहती है जिन्हें उनकी पोती की खुशी से ज्यादा समाज की परवाह होती है।
अमरकांत यहाँ भी अपनी दुर्बलता का परिचय देकर सकीना को उसके हाल पर छोड़ कर चला जाता है। अमरकांत के बाद सकीना की दुनिया में उमंग का लेशमात्र भी स्थान नही था। वह बीमार रहने लगी थी, एक दिन सुखदा उससे मिलने आती है। सुखदा को सकीना से सच्ची सहानुभूति थी। उससे बात कर सुखदा प्रेम के अर्थ को समझती है। सकीना कहती है "-" सभी ने मुझे दिल बहलाव की चीज़ समझा, और मेरी गरीबी से अपना मतलब निकालना चाहा । अगर किसी ने मुझे इज़्ज़त की निग़ाह से देखा, तो वह बाबूजी थे । " सकीना की बातों का सुखदा पर ऐसा असर हुआ कि सकीना के प्रति उसके सारे भ्रम दूर हो गए । सकीना भी अमर के इंतज़ार में जीवन काटती है और जब सलीम सकीना से निकाह करने की इच्छा जाहिर करता है तो वह तब भी उससे अमरकांत की राय लेने को कहती है। सकीना उपन्यास में एक ऐसे चरित्र के रूप में पाठकों के सम्मुख आती है जिसने ना केवल प्रेम की परिभाषा को सार्थक सिद्ध किया, अपितु सुखदा और अमरकांत के गृहस्थ जीवन को नई दिशा देने का कार्य करती है।
ज्योति कुमारी
Nice review,.....Thanks
जवाब देंहटाएंexcellent
जवाब देंहटाएंwell researched notes
thank you so much
Short and comprehensive summary
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